जो मेरे पास नहीं वह में तुम्हें कैसे दे दूँ ? [कविता एकता खेतान]

जो मेरे पास नहीं वह में तुम्हें कैसे दे दूँ ?

सर्द रातों में जब तुम, रूठ के, मुँह फेर सो जाते हो,
तब तकियों के ओंट मे, में अपने टूटे मन को समेट रोती हूँ।
उसके गीले कोने में
मैं अपनी सिसकियो को समेत सो जाती हूँ।
मगर वह जो नींद मेरे पास नहीं
वह मैं तुम्हें कैसे दे दूँ?

गरमियों की तपती धूप में
जो एक छांव राहत देती है,
में उस छांव को ढूँढ-ढूँढ तरस जाती हूँ।
उजड़े बियाबान शहरों में
जो छांव मेरे पास नहीं
वह छांवमैं तुम्हें कहा से लाकर दूँ?

और
बारिशों में जो छत ना ढाँक सके,
सिर पे रहके भी रिसता रहे, 
उन दीवारों पे भी मैं आस की तस्वीरें लगती हूँ।

टूटी, टेढ़ी सड़कों पर,
पानी से भरे गड्ढों में, 
में अपनी काग़ज़ की ही सही, नाव चलाती हूँ।

इन बारिशों, सर्दियों और ग्रीष्म में मैंने क्या पाया है? 
हाँ पर इन सभी मौसमों ने मेरे अंदर एक चाह जगाया है। 
आएगा बसंत यह सोच कर,
जलाए मैंने कई आशाओं के दिए।
होगी एक चमकदार सुबह कल
यह सोच कर मैंने कई रात, अंधेरो में ख़ाली कर दिए।
सुबह आए ना आए, रातों में दिया जलाना भी ज़रूरी है।
जीवन कितना भी सूना क्यूँ ना हो, मन का ख़ाली होना भी ज़रूरी है।
तमस से भरे मन को, में बिना रोशनी कैसे प्रज्वलित कर दूँ ?

तोड़ दोगे सपनो को, तो नींद कहा से पाओगे?
कांट के घने पेड़ों को, छांव कहा से लाओगे?
जो छत मेरा सिर ना ढाँक पाई,
वह में किसी और के नाम कैसे कर दूँ?

जो मेरे पास नहीं वह में तुम्हें कैसे दे दूँ ?
कैसे दे दूँ? 

---© एकता खेतान कृति---


Comments

  1. Bahut khubsurat, kisi k bhi dil ki baat hai ye 👏👏

    ReplyDelete

Post a Comment

Hi Folks,

You heard me...now its time for Bouquets and Brickbats!