किसी की छत, किसी का फ़र्श ।
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किसी की छत, किसी का फ़र्श होती है।
जो छत सिर पे चढ़ जाए
वो ज़मीन बन क़दमों में भी सिमटती है।
जिसे समझ ख़ाक तुम पैरों तले रोंदते हो,
वह कभी बन के आसमा तुम्हें अपने में पनाह देती है।
यह बनती है बेजान चीज़ों से
मगर कितनी जानो को यह संजोति है।
दोनो हो भले ही एक दूसरे से पृथक
मगर दीवारों से सरपरस्त जुड़ी है।
स्तंभों से मिलकर यह एक दूसरे के साथ खड़ी है।
एक को छोड़ दूसरे को बेहतर बनाओगे,
तो कभी गिर, या कभी भीग जाओगे।
जब छत और फ़र्श के मक़ाम को बराबर समझ पाओगे,
और बन के एक सीधी इनसे जुड़ जाओगे,
तभी तुम एक सफल मकान बना पाओगे।
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#एकता #writtenByMe #OriginalPoem
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Hi Folks,
You heard me...now its time for Bouquets and Brickbats!