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वो महीने भर लोगों के घर में
झूठे बर्तन घिस घिस कर
१००० रुपए कमाती है
साबुन से जले हाथो को पोंछ कर
फटी हुई सारी को फिर से सी कर
बाज़ार जाती है
लाने कुछ ख़ुशी अपनो के लिए
और देख के महेंगे टैग
ज़रूरत की कुछ चीज़ों पर
अपना मन मार के फिर रह जाती है।
वो लगाते है महँगे होरडिंग्स
पिज़्ज़ा हट और चीज़ बर्गर के
उन सड़कों पे
जहाँ पे लोग अक्सर भूखे ही सो जाते है।
भर नहीं सकते तस्वीरों से पेट
करते है और ज़लील उसस भूख को
जो Just For Rs ९९ only
के नीचे
दो वक़्त की रोटी और साफ़ पीने के पानी को तरस जाते है।
क्यूँ है इतनी बड़ी दरार
वो जो है जिसके पास और नहीं जिसके पास में?
की कोई तो पैसा को पानी की तरह बहाता हे
और कोई जलती हुई गरमी में
एक बोतल पानी को तरस जाता है?
स्वतंत्रता तो आ गयी,
आत्मनिर्भरता भी आ गयी।
मगर लाचारी से कब हम मुक्त होंगे?
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©️एकता खेतान
Photo Source: NY Times
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Hi Folks,
You heard me...now its time for Bouquets and Brickbats!